विदेह की देह के कातिल का प्रभु-प्रेम
एक किसी ने ओशो से दीक्षा ली, सन्यास लिया और सात बरस बाद अचानक एक दिन आकर कहने लगा—‘’अब मैं भय-मुक्त हूं, अब मैं बता सकता हूं कि मैं सात साल पहले जब अहमदाबाद अया था, संन्यास लेने के लिए नहीं आया था, आपको कत्ल करने के लिए आया था…….’’
ओशो मुस्कुराए: मुंह से निकला—एक बार फिर?
वह व्यक्ति समझा नहीं, कहने लगा—‘’मेरे पास रिवाल्वर था। उस दिन की मीटिंग में लोगों की हाजिरी इतनी ज्यादा थी कि मुझे हॉल में बैठने की जगह नहीं मिली, इसलिए प्रबंधक लोगों ने मंच पर ही बैठ जाने की मेरे लिए जगह बना दी, जहां आप मेरे सामने ही बैठे थे…..
ओशो ने कहा—‘’फिर इस तरह का मौका तूने क्यों जाने दिया?
वह कहने लगा—‘’मैंने पहले कभी आपको सुना नहीं था। उस दिन आप जब बोले, मैं सारा समय आपको सुनता ही रहा। भूल गया मारने वाली बात। और सुनते-सुनते मेरा मन बदल गया। और मैं ऐसा पागल हो गया कि आपको कत्ल करने की बजाएं आपसे संन्यास दीक्षा ले ली…….।
ओशो हंसकर एक लंबा सिलसिला देखते रहे। जान गए कि आज से सात सौ साल पहले उनके जिस मुरीद ने उन्हें जहर दिया था, वह यहीं था, उस जन्म में भी ये मेरा शिष्य था। जब मैं अपना अंतिम 21 दिन का उपवास रख कर शरीर छोड़ रहा था। तब इसने तीन दिन पहले मुझे जहर दे दिया था। वही सिलसिला फिर……
अचेतन भी एक सुखी पानी की लकीर की तरह है। जो तुम इस जन्म में करते हो वही बार-बार दोहराते जाते हो।
ओशो कुछ देर खामोश रहे, आस पास के वृक्ष पर लगे फूल पत्ते भी कुछ देर के लिए प्रेम और भय से थर्रा गये। उनमें भय मिश्रित शांति फेल गई। पर शायद उन्होंने नीचे खड़े सद्गुरू को देखा और खिलखिला उठे। चारों तरफ कैसी धुलि स्मृतियाँ बिखर गई।
शायद किसी गुरु-पीर को यह शरफ़ हासिल नहीं हुआ कि कोई उसे कत्ल करने के लिए आये और उनके चरणों में दीक्षित हो जाये। शायद वृक्ष इस अनुभूति से हतप्रभ थे। जल में उठी उन तरंगों की तरह ही फिर शांति वातावरण में फिर घुलने लग गई…..
–अमृता प्रीतम
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