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आमंत्रण

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ओशो उवाच... मैं यात्रा करूँ या न करूँ- बोलूँ या न बोलूँ;  इससे कोई भी भेद नहीं पड़ेगा, उनके लिए जो मेरे साथ चलने को तैयार हैं| उनके लिए रुके हुए भी मेरी यात्रा जारी रहेगी और मौन में भी मैं बोलता ही रहूँगा| शरीर भी मेरा निराकार में खो जाए, तो भी मेरे हाथों का सहारा उन्हें मिलता रहेगा| और, आज ही नहीं- कभी भी, काल के अनंत प्रवाह में मैं उन्हें मार्ग दूंगा| क्योकि अब मैं नहीं हूँ- वरन स्वयं प्रभु ही मेरी बांसुरी से गीत गा रहा है| जिनके पास आँखें हों- वे देख लें| जिनके पास कान हों- वे सुन लें| और जिनके पास प्रज्ञा हो- वे पहचान लें|